छत्तीसगढ़ के क्षेत्रीय राजवंश। शरभपुरीय वंश, पाण्डु वंश, सोमवंशी, काकतीय, नलवंश। छत्तीसगढ़ का इतिहास

 छत्तीसगढ़ के क्षेत्रीय राजवंश

छत्तीसगढ़ का इतिहास


पिछले पोस्ट में हमने छत्तीसगढ़ के प्रागैतिहासिक काल तथा  छत्तीसगढ़ के प्राचीन इतिहास को देखा था आज की इस पोस्ट में छत्तीसगढ़ में शासन करने वाले विभिन्न क्षेत्रीय राजवंश को देखेंगे। छत्तीसगढ़ के स्थानीय राजवंश के संबंध में पहला प्रमाण राजर्षितुल्य राजवंश का प्राप्त हुआ है। 

छत्तीसगढ़ के क्षेत्रीय राजवंश
छत्तीसगढ़ के क्षेत्रीय राजवंश


राजर्षितुल्य राजवंश

छत्तीसगढ़ में राजर्षितुल्य राजवंश का संस्थापक शूरा था इसलिए राजर्षितुल्य राजवंश को शूरा वंश भी कहते हैं।राजर्षितुल्य राजवंश के शासन के बारे मे जानकारी आरंग ताम्रपत्र से प्राप्त होता हैं इस ताम्रपत्र में इस वंश के 6 शासकों की जानकारी मिलती हैं जो कि शूरा, दयित 1, विभीषण, भीमसेन 1, दयित 2, भीमसेन 2 नाम के थे। यह ताम्रपत्र भीमसेन 2 ने स्वर्ण नदी के नाम से जारी किया था। 

शरभपुरीय राजवंश

छत्तीसगढ़ ( प्राचीन नाम दक्षिण कोशल ) क्षेत्र में छठी शताब्दी के प्रारंभ में शरभराज के द्वारा शरभपुरीय राजवंश की स्थापना की गई। इसकी जानकारी भानुगुप्त के एरण अभिलेख से होती है इस राजवंश के सभी अधिकार पत्र पर गजलक्ष्मी की मुहर लगी हुई होती थी इससे इनके धर्म का वैष्णव होने का अनुमान लगाया जाता है। इस राजवंश के कुछ प्रमुख शासक हैं शरभराज, प्रसन्नमात्र, जयराज, प्रवरराज प्रथम, सुखदेवराज प्रवरराज।। 

शरभराज के समय राजधानी शरभपुर थी। प्रसन्नमात्र ने लीलागर नदी ( निडिला नदी ) के तट पर पसन्नपुर शहर बसाकर अपनी राजधानी बना ली। प्रसन्नमात्र इस राजवंश के प्रमुख शासकों में से एक थे इसने अपने नाम के स्वर्ण सिक्के भी चलाए थे जो कि इस बात का प्रमाण है कि यह राजवंश स्वतंत्र अधिसक्ता पर शासन करते थे । प्रसन्नमात्र के सिक्के उड़ीसा से महाराष्ट्र तक प्राप्त हुए हैं जो कि उनके साम्राज्य विस्तार का प्रमाण है प्रसन्नमात्र का शासन काल वैभव,समृद्धि और प्रगति के साथ भरा रहा।

प्रसन्नमात्र के मृत्यु के पश्चात उनका पुत्र जयराज उत्तरअधिकारी बना । इसकी जानकारी हमें मल्हार ताम्रपत्र से मिलती है। प्रवर राज प्रथम के समय में इस वंश ने अपनी राजधानी सिरपुर को बनाया। प्रवरराज द्वितीय इस वंश का अंतिम शासक था जिसकी हत्या इंद्रबल ने की तथा सिरपुर में पाण्डु वंश की नींव रखी।

सिरपुर का पाण्डु वंश 

छत्तीसगढ़ के सिरपुर में पाण्डु वंश के आदि पुरुष के नाम से उदयन को जाना जाता है इसका उल्लेख कालिंजर शिलालेख में है । शरभपुरीय राजा प्रवरराज द्वितीय की हत्या करके इंद्रबल ने सिरपुर में पाण्डु वंश की स्थापना की। इसे पाण्डु वंश का वास्तविक संस्थापक कहा जाता है। इनके पुत्र ईशान देव का वर्णन खरौद के लक्ष्मणेश्वर मंदिर के शिलालेख में उल्लेखित हैं। जिसके अनुसार ईशानदेव ने ही इस मंदिर का निर्माण किया था। जिसे लाखा चाउर मंदिर के नाम से भी जाना जाता है।

पाण्डु वंश के उत्कर्ष का काल महाशिव तीवरदेव के काल को कहा जाता है क्योंकि इन्होंने कोशल, उत्कल एवं समीपवर्ती अन्य राज्यों तक अपना साम्राज्य का विस्तार किया इसके साथ ही उन्होंने सकलकोशलाधिपति की उपाधि धारण की। 

पाण्डु वंश का सबसे प्रतापी शासक महाशिवगुप्त बालार्जुन था जिसका शासन काल 595 ईसवी से 655 ईसवी तक था। यह शैव धर्म का अनुयाई था लेकिन अन्य धर्मों के प्रति उदार तथा सहिष्णु था। महाशिवगुप्त बालार्जुन के शासनकाल में सिरपुर क्षेत्र में सभी धर्म का विकास हुआ , इन्हीं के शासनकाल में इनकी माता वासटा देवी ने हीं अपने पति हर्ष गुप्त की याद में सिरपुर में लक्ष्मण मंदिर का निर्माण करवाया जो कि भगवान विष्णु का मंदिर है। यह मंदिर अपने स्थापत्य कला के लिए ख्याति प्राप्त है महाशिवगुप्त बालार्जुन के शासनकाल में बौद्ध भिक्षु तथा चीनी यात्री व्हेनसॉन्ग ने सिरपुर की यात्रा की। महाशिवगुप्त बालार्जुन के शासनकाल में छत्तीसगढ़ का विकास अपने चरमोत्कर्ष पर था इसी कारण इसके काल को छत्तीसगढ़ का स्वर्ण काल कहते हैं।

सोम वंश

छत्तीसगढ़ में सोम वंश की तीन शाखाएं थी मैकल के सोमवंश, कलिंग के सोमवंश, कांकेर के सोमवंश । मैकल के सोमवंश की जानकारी मल्हार ताम्रपत्र से मिलती है जिनकी राजधानी अमरकंटक हुआ करते थे। कलिंग के सोमवंश कोसल, कलिंग तथा उत्कल क्षेत्र में शासन करते थे। कांकेर के सोमवंश की राजधानी कांकेर थी इसकी जानकारी भानु देव के कांकेर अभिलेख से होती है।

बस्तर के नल वंश 

छत्तीसगढ़ में नंद वंश का शासन दंडकारण्य के क्षेत्र पर था जिसकी राजधानी पुष्करी हुआ करती थी। नल वंश के संस्थापक शिशुक थे तथा इस वंश का वास्तविक संस्थापक वाराह राज को माना जाता है। इस वंश की जानकारी के बहुत सारे स्रोत उपलब्ध हैं जैसे कि ऋद्धिपुर ताम्रपत्र, केसरी बेड़ा, राजिम शिलालेख इत्यादि। 

समुद्रगुप्त के दक्षिण भारत अभियान के समय में समुद्रगुप्त ने यहां के शासक व्याघ्रराज को हराया था। जिसका उल्लेख हरिषेण के प्रयाग प्रशस्ति में हैं। वराहराज इस वंश का वास्तविक संस्थापक माना जाता है इनके स्वर्ण सिक्के कोण्डागांव के अड़ेगा से प्राप्त हुए हैं। इस वंश का एक प्रतापी शासक भवदत्त वर्मन था जिन्होंने सत्ता प्राप्ति के पश्चात वाकाटक शासक नरेंद्र सेन पर आक्रमण कर उसे परास्त कर दिया तथा वहां की राजधानी नंदीवर्धन को तहस-नहस कर दिया इसके बाद इनका पुत्र अर्थपति भट्ठारक राजा बना। अपने पिता की हार का बदला लेने के लिए वाकाटक नरेश नरेंद्र सेन के पुत्र पृथ्वीसेन द्वितीय ने उचित अवसर पाकर भवदत्त बर्मन के पुत्र अर्थपति भट्ठारक पर हमला करके उसे पराजित कर दिया तथा उसकी राजधानी पुष्करी को तहस-नहस कर दिया।

विलासतुंग भी इस वंश के योग्य शासक थे इसकी जानकारी हमें राजिम शिलालेख से मिलती है। इस शिलालेख में इनके पूर्वज विरुपक्ष तथा पृथ्वीराज के बारे मे भी जानकारी मिलती हैं। विलासतुंग ने राजीव लोचन मंदिर का निर्माण करवाया था यह भगवान विष्णु के भक्त थे।

छिंदक नागवंश

छत्तीसगढ़ में छिंदक नागवंश का शासन बारसूर क्षेत्र पर था बस्तर के छिंदक नागवंश के संस्थापक नृपति भूषण थे। इसकी जानकारी एराकोटा अभिलेख से प्राप्त होता हैं। सोमेश्वर देव छिंदक नागवंश शासको में सर्वाधिक शक्तिशाली शासक थे इसकी जानकारी का प्रमुख स्रोत कुरुषपाल अभिलेख है । सोमेश्वर देव ने मधुरंतक को पराजित करके अपना साम्राज्य वापस प्राप्त किया था । इन्होंने सोमवंशी शासक उद्योत केसरी महाभव गुप्त को पराजित किया । वेंगी के नरेश वीरचोड़ को भी पराजित किया इसके अलावा उन्होंने लांजी विजय (बालाघाट क्षेत्र) व वज्र विजय (बैरागढ़ क्षेत्र) के साथ-साथ रतनपुर के शासक पृथ्वीदेव प्रथम को भी पराजित किया। सोमेश्वर देव के शासनकाल में बस्तर एक वैभवपूर्ण क्षेत्र बना रहा क्योंकि इन्होंने अपने शासन में अनेकों लोक कल्याण हेतु कार्य किए थे।

बस्तर के काकतीय वंश 

छत्तीसगढ़ के इतिहास में काकतीय वंश की एक प्रमुख भूमिका है काकतीय वंश के शासकों ने छत्तीसगढ़ के दक्षिणी भाग बस्तर में शासन किया। इनका शासनकाल छत्तीसगढ़ के दक्षिणी भाग में अत्यधिक लंबे समय तक रहा। इस वंश के संस्थापक अन्नमदेव थे तथा इस वर्ष के अंतिम शासक के रूप में प्रवीर चंद्र भंजदेव ने भारतीय गणराज्य के विलय पत्र में हस्ताक्षर किए। प्रवीर चंद्र भंजदेव के नाम पर छत्तीसगढ़ में तीरंदाजी के क्षेत्र में पुरस्कार दिया जाता है। अन्नमदेव ने अपनी कूलदेवी के नाम पर दंतेवाडा जिला में दंतेश्वरी मंदिर का निर्माण कराया। 

छत्तीसगढ़ में काकतीय वंश के शासन काल के घटनाक्रम बहुत सारे है। अतः काकतीय वंश की जानकारी हम अगले पोस्ट में साझा करेंगे। 


इन्हे भी देखें

गुप्तकालीन भारतीय कला संस्कृति । भारत का स्वर्ण युग। Gupta Indian art Culture in Hindi

छत्तीसगढ़ के जनजातीय समूह द्वारा मृतक स्तंभ बनाने की परंपरा

प्राचीन भारत की कला संस्कृति। Ancient Indian art culture in hindi

भारत की यूनेस्को विश्व विरासत में शामिल स्थल | UNESCO World Heritage site in India

भारतीय संस्कृति । हमारा भारत महान। भारतीय संस्कृति की विशेषता। Indian culture

मौर्य कालीन भारतीय कला संस्कृति। Mauryan Indian art Culture in hindi



एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ