छत्तीसगढ़ में कल्चुरी वंश का गौरवशाली इतिहास। Kulchuris in Chhattisgarh

 छत्तीसगढ़ में कल्चुरी वंश का गौरवशाली इतिहास

छत्तीसगढ़ में कलचुरी सर्वाधिक लंबे समय तक शासन करने वाले राजवंश के रूप में उभरे। इस वंश में बहुत से महत्वपूर्ण शासक हुए हैं जिन्होंने अपने साम्राज्य का विस्तार तो किया उसके साथ ही लोक कल्याण, स्थापत्य कला ,धर्म और रक्षा प्रदान कर अपनी कीर्ति देशभर में दूर-दूर तक फैलाये। ऐसे गौरवशाली कल्चुरी शासक में कलिंगराज, रत्नराज, पृथ्वीदेव  तथा जाजल्यदेव प्रथम इत्यादि प्रमुख हैं। भारतीय इतिहास के परिपेक्ष में कलचुरी राजवंश का एक महत्वपूर्ण स्थान है जिन्होंने भारत के किसी ने किसी क्षेत्र में लगभग 1200 सालों तक शासन किया।

Kalchuries Dynasty Chhattisgarh 


कलचुरी वंश का आदि पुरुष कृष्णराज को माना जाता है जिसने कलचुरी वंश की नींव रखी तथा 500 ईस्वी से 575 ईसवी तक शासन किया। इसके बाद उनके पुत्र शंकरगण प्रथम ने 575 से 600 ईसवी तक शासन किया। आद्य कलचुरी शासकों की राजस्थानी माहिष्मती को माना जाता है जोकि इंदौर रियासत में स्थित एक स्थल है।

छत्तीसगढ़ में कल्चुरी राजवंश

10 वीं सदी में त्रिपुरी के कलचुरी कोक्कल देव द्वितीय ने अपने शासनकाल में कलिंग राज को दक्षिण कौशल के क्षेत्र में युद्ध करने के लिए भेजा। कलिंग राज ने युद्ध जीतकर 1000 ईस्वी में तुम्माण नगर को अपनी राजधानी बनाते हुए छत्तीसगढ़ में कलचुरी साम्राज्य की नींव रखी। कलिंग राज के बाद उनका पुत्र कमल राज कलचुरी वंश का अगला शासक बना जिन्होंने तुम्माण से ही संपूर्ण छत्तीसगढ़ को शासित करना प्रारंभ किया।

रतनपुर का इतिहास

1045 ईस्वी में कमल राज की मृत्यु हो गई उसके उपरांत उसका पुत्र रत्नराज प्रथम कलचुरी वंश का अगला शासक बना। रत्नराज प्रथम (रत्नदेव प्रथम) कलचुरी वंश का एक योग्य शासक था जिन्होंने तुम्माण से ही अपना शासन प्रशासन प्रारंभ किया। लेकिन कुछ ही समय बाद उसने रतनपुर नामक एक नगर बसाया जो की आगे चलकर कलचुरियों की राजधानी बनी। 

रतनपुर शाखा के कलचुरी शासकों में से रत्नराज प्रथम बहुत ही योग्य एवं प्रसिद्धि प्राप्त शासक थे । उनकी यह प्रसिद्ध केवल राज्य विस्तार के कारण नहीं थी बल्कि उनके द्वारा किए गए विभिन्न स्थापत्य कला, तालाब निर्माण एवं कुशल प्रशासन इत्यादि के कारण थी। रत्नराज प्रथम ने 11वीं शताब्दी में महामाया मंदिर का निर्माण रतनपुर में करवाया इसके अलावा रत्नेश्वर शिव मंदिर का निर्माण तुम्माण में तथा महिषासुर मर्दिनी मंदिर का निर्माण लाफ़ागढ़ में करवाया। रत्नराज प्रथम के शासनकाल में ही बहुत से तालाब बनाए गए हैं जिसके कारण रतनपुर क्षेत्र को तालाबों की नगरी के नाम से प्रसिद्धि मिली तथा यहां के लोग धन-धान्य से परिपूर्ण एवं समृद्ध हुए। रत्नराज प्रथम की साम्राज्य विस्तार नीति भी बहुत सफल एवं सुदृढ़ थी जिसके कारण इन्होंने अपनी साम्राज्य विस्तार भी किया। इन्होंने 1055 ईसवी में सोमवंशी शासक महाभवगुप्त चतुर्थ को पराजित कर सिरपुर क्षेत्र में कलचूरी सम्राज्य का पताका लहराया।

रत्नराज प्रथम के मृत्यु के बाद उनका पुत्र पृथ्वीदेव प्रथम 1065 ईसवी में रतनपुर का शासक बना। पृथ्वीदेव प्रथम भी कलचुरी वंश के एक योग्य शासक थे । अमोदा ताम्रपत्र अभिलेख से यह जानकारी मिलती है कि उन्होंने 21000 ग्रामों को जीत लिया था। पृथ्वीदेव प्रथम ने सकलकोशलाधिपति की उपाधि धारण की थी इससे यह ज्ञात होता है कि इन्होंने संपूर्ण छत्तीसगढ़ पर अपने प्रभुत्व की स्थापना की थी। पृथ्वी देव प्रथम ने पृथ्वीदेवेश्वर मंदिर तुम्माण तथा रतनपुर में विशाल सरोवर का निर्माण कराया। पृथ्वीदेव प्रथम ने ही लाफागढ़ में किलाबंदी करवाया था जिसमे प्रवेश हेतु तीन प्रमुख द्वार क्रमश: मेनका द्वार, सिंह द्वार, और हुंकारू द्वार थे। इसी किलाबंदी के कारण लाफागढ़ को छत्तीसगढ़ का चित्तौड़ कहा जाता है।

कल्चुरी राजवंश के वास्तविक संस्थापक जजल्लदेव थे, जिन्होंने प्राचीन भारत के हैहय राजवंश से अपने वंश का दावा किया था।  उनके नेतृत्व में, कल्चुरियों ने अपने क्षेत्र का विस्तार किया और छत्तीसगढ़ के उपजाऊ मैदानों पर नियंत्रण हासिल कर लिया।

###कल्चुरी राजवंश का योगदान


कल्चुरी राजवंश ने छत्तीसगढ़ के सांस्कृतिक और स्थापत्य परिदृश्य में महत्वपूर्ण योगदान दिया।  वे कला और साहित्य के संरक्षक थे और उन्होंने मूर्तिकला और चित्रकला सहित विभिन्न कला रूपों के विकास को प्रोत्साहित किया।  उनके शाही दरबार बौद्धिक और कलात्मक गतिविधियों के केंद्र थे।

कल्चुरी राजवंश की सबसे उल्लेखनीय वास्तुकला उपलब्धियों में से एक प्रसिद्ध राजिम कुंभेश्वर मंदिर है।  रायपुर के पास स्थित यह मंदिर परिसर अपनी जटिल नक्काशी और उत्कृष्ट मूर्तियों के लिए प्रसिद्ध है।  यह कल्चुरियों की स्थापत्य प्रतिभा के प्रमाण के रूप में खड़ा है।

###कल्चुरी वंश का पतन
अपनी प्रारंभिक सफलता के बावजूद, कल्चुरी राजवंश को आंतरिक संघर्षों और बाहरी आक्रमणों का सामना करना पड़ा, जिसके कारण अंततः उनका पतन हुआ।  राजवंश ने छत्तीसगढ़ पर अपनी पकड़ खो दी, और उनके क्षेत्रों को धीरे-धीरे अन्य क्षेत्रीय शक्तियों ने अपने कब्जे में ले लिया।

कल्चुरी राजवंश के पतन ने छत्तीसगढ़ के इतिहास में एक नए युग की शुरुआत को चिह्नित किया, क्योंकि इस क्षेत्र में कई अन्य राजवंश सत्ता में आए।  हालाँकि, कल्चुरी राजवंश की विरासत उनके स्थापत्य चमत्कारों और सांस्कृतिक योगदान के माध्यम से जीवित है।


कल्चुरी राजवंश की प्रमुख विशेषताएँ

 -सैन्य कौशल और प्रशासनिक कौशल
 - कला और साहित्य का संरक्षण
 - स्थापत्य उपलब्धियां, जैसे राजिम कुंभेश्वर मंदिर

 ###सैन्य कौशल और प्रशासनिक कौशल

 कल्चुरी राजवंश अपनी सैन्य शक्ति और रणनीतिक योजना के लिए जाना जाता था।  उन्होंने एक अच्छी तरह से प्रशिक्षित सेना रखी और बाहरी खतरों के खिलाफ अपने क्षेत्रों की सफलतापूर्वक रक्षा की।  उनके प्रशासनिक कौशल ने कुशल शासन सुनिश्चित किया और उनके राज्य में आर्थिक विकास को सुविधाजनक बनाया।

 ###कला और साहित्य का संरक्षण

 कल्चुरी कला और साहित्य के महान संरक्षक थे।  उन्होंने कलाकारों, कवियों और विद्वानों को अपने शासन में फलने-फूलने के लिए प्रोत्साहित किया।  उनके शाही दरबार बौद्धिक और कलात्मक गतिविधियों के केंद्र बन गए, जिससे एक जीवंत सांस्कृतिक माहौल को बढ़ावा मिला।

 ###वास्तुकला उपलब्धियाँ
 कल्चुरी राजवंश ने छत्तीसगढ़ के स्थापत्य परिदृश्य पर एक अमिट छाप छोड़ी।  उनके शासनकाल के दौरान बनाया गया राजिम कुंभेश्वर मंदिर, उनकी वास्तुकला प्रतिभा का एक प्रमुख उदाहरण है।  मंदिर परिसर में जटिल नक्काशी और मूर्तियां प्रदर्शित हैं जो विभिन्न पौराणिक कहानियों को दर्शाती हैं।

 ##निष्कर्ष
 कल्चुरी राजवंश ने छत्तीसगढ़ के इतिहास को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।  उनकी सैन्य कौशल, प्रशासनिक कौशल, कला और साहित्य का संरक्षण और वास्तुकला उपलब्धियों ने उन्हें क्षेत्र के प्रमुख राजवंशों में से एक के रूप में स्थापित किया।  हालाँकि उनका शासन अंततः समाप्त हो गया, लेकिन छत्तीसगढ़ की सांस्कृतिक विरासत में उनके योगदान का जश्न मनाया जाता है और उनकी प्रशंसा की जाती है।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ