छत्तीसगढ़ पर्यटन प्राकृतिक विरासत और दर्शनीय स्थल
रायपुर , बिलासपुर तथा दुर्ग संभाग (मध्य क्षेत्र) के पर्यटन स्थल
आरंग - महानदी के तट पर स्थित आरंग एक प्राचीन , पौराणिक तथा ऐतिहासिक नगरी है । प्राचीन काल में यहाँ पर कलचुरी नरेश मोरध्वज का राज्य था । रायपुर जिले में सिरपुर तथा राजिम के बीच महानदी के किनारे बसे इस छोटे से नगर आरंग को मंदिरों की नगरी कहते हैं । यहां के प्रमुख मंदिरों में 11 वीं -12 वीं सदी में बना भांडदेवल मंदिर है । यह एक जैन मंदिर है । इसके गर्भगृह में तीन तीर्थकरों की काले ग्रेनाइट की प्रतिमाएं हैं । महामाया मंदिर में 24 तीर्थकरों की दर्शनीय प्रतिमाएं हैं । बाग देवल , पंचमुखी महादेव , पंचमुखी हनुमान तथा दंतेश्वरी देवी मंदिर यहां के अन्य मंदिर हैं जो दर्शनीय हैं । आरंग एक पुराना शहर है जो रायपुर से लगभग 36कि.मी. दूर है ।
तुरतुरिया - तुरतुरिया बलौदाबाजार जिले में स्थित एक महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल है । इस पर्यटन स्थल पर वाल्मिकी का आश्रम स्थित है । ऐसी मान्यता है कि भगवान राम द्वारा सीता माता को त्याग दिये जाने पर वाल्मिकी जी ने सीता जी को यहाँ आश्रय प्रदान की । यहीं पर सीता के दोनों पुत्र लव और कुश का जन्म हुआ । इसका तुरतुरिया नाम होने का कारण, चट्टानों के मध्य भाग में निरंतर झरने प्रवाहित होते रहते हैं , तब चट्टानों के मध्य से तुर - तुर की आवाज निकलती रहती है ।
गिरौदपुरी धाम - बलौदाबाजार से 40 किमी दूर तथा बिलासपुर से 80 किमी दूर जोंक नदी के निकट से स्थित गिरौधपुरी धाम छत्तीसगढ़ के सबसे सम्मानित तीर्थ स्थलों में से एक है । इस छोटे से गांव , जिसमें आध्यात्मिकता और ऐतिहासिक हित के गहरे संबंध हैं । गुरूघासीदास जी का जन्म 18 दिसम्बर 1756 ई . में जिला बलौदाबाजार में गिरौदपुरी नामक ग्राम में हुआ । इनके पिता का नाम महंगूदास तथा माता का नाम अमरौतिन बाई था । गुरुघासीदास का बचपन का नाम घसिया था । वह एक गरीब किसान परिवार में पैदा हुए । इनके बाल्यकाल में ही माता अमरौतिन का देहांत हो गया । गुरूघासीदास जी बचपन से शांत प्रवृत्ति के थे । घासीदास जी एक बार जगन्नाथपुरी की यात्रा के लिए जा रहे थे परंतु सारंगढ़ से वापस लौटकर गिरौदपुरी के छातापहाड़ पर ज्ञान प्राप्ति के लिए साधना में लीन हो गए । ज्ञान प्राप्ति के पश्चात् समाज में व्याप्त बुराईयों एवं धार्मिक रूढ़िवादी विचारधाराओं सुधारने में अपना संपूर्ण जीवन समर्पित कर दिए । वर्तमान में गिरौदपुरी में कुतुबमीनार से भी ऊँची जैतखाम का निर्माण किया गया है , जो छत्तीसगढ़ के प्रमुख पर्यटनस्थलों में अपना विशेष स्थान रखता है । फाल्गुन माह के पंचमी से 3 दिवसीय मेले का आयोजन किया जाता है जिसमें न केवल छत्तीसगढ़ अपितु देश - विदेश के भी भक्त दर्शन के लिए आते हैं । संत गुरूघासीदास मराठा शासक बिम्बाजी भोसले के समकालिन थे ।
दामाखेडा- छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के समीप कबीर पंथियों की तीर्थ स्थल है । यह स्थल शिवनाथ नदी के तट पर स्थित है । रायपुर - बिलासपुर सड़क मार्ग पर सिमगा से 10 किमी की दूरी पर एक छोटा सा ग्राम है । यह कबीरपंथियों के आस्था का सबसे बड़ा केंद्र माना जाता है । कबीर साहब के सत्य , ज्ञान , तथा मानवतावादी सिद्धांतों पर आधारित दामाखेड़ा में कबीर मठ की स्थापना 1903 में कबीरपंथ के 12 वें गुरु उग्रनाम साहब ने दशहरा के शुभ अवसर पर की थी । तब से दामाखेड़ा कबीर पंथियों के तीर्थ स्थालों के में प्रसिद्ध है । मध्य प्रदेश के जिला उमरिया के अंतर्गत बांधवगढ़ निवासी संत धर्मदास , कबीर साहब के प्रमुख शिष्य थे । जिन्हें कबीर साहब ने अपना संपूर्ण आध्यात्मिक ज्ञान दिया और द्वितीय पुत्र मुक्तामणि नाम साहब को 42 पीढ़ी तक कबीर पंथ का प्रचार - प्रसार करने का आशीर्वाद प्रदान किया । इस तरह मुक्तामणि नाम साहब कबीरपंथ के प्रथम वंशगुरु कहलाए जिन्होंने छत्तीसगढ़ के ग्राम कुदुरमल जिला कोरबा को कबीर पंथ के प्रचार प्रसार के लिए कार्यक्षेत्र बनाया । दामाखेड़ा का कबीर आश्रम बेहद पवित्र और प्रमुख माना जाता है । इसी आश्रम से सभी आश्रमों की गतिविधियां संचालित होती हैं । कबीर पंथ में चौका , आरती का बहुत महत्व है । यह गुरु पूजा विधान है । चौका - आरती भारत की प्राचीन परंपरा है । इसकी सभी गतिविधियां आश्रम से संचालित होती हैं । वहीं समाधि मंदिर में कबीर साहब की जीवनी को बड़े ही मनमोहक एवं कलात्मक ढंग से दीवारों में नक्काशी कर उकेरा गया है । कबीर साहब के प्रगट स्थल की जीवंत झांकी यहां पर श्रद्धालु देखने के लिए देशदुनिया से आते हैं । समाधि मंदिर के मध्य में वंशगुरु उग्रनाम एवं गुरु माताओं की समाधियां स्थित हैं साथ ही यहां पर कबीर पंथ के प्रथम वंश गुरु मुक्तामणि नाम साहब का मंदिर बना हुआ है । जिसके ठीक सामने कबीर पंथ का प्रतीक सफेद ध्वज संगमरमर के चबूतरे पर लहरा रहा है । श्रद्धालु यहां माथा टेकते हैं । पंथ और अनुयायियों की यह तीर्थ स्थली विश्व प्रसिद्ध हैं।
चैतुरगढ़- चैतुरगढ़ ( लाफागढ़ ) कोरबा शहर से करीब 70 किलोमीटर दूर स्थित है । यह पाली से 25 किलोमीटर उत्तर की और ऊंची पहाड़ी के शीर्ष पर स्थित है , यह राजा पृथ्वीदेव प्रथम द्वारा बनाया गया था । पुरातत्वविदों ने इसे मजबूत प्राकृतिक किलो में शामिल किया गया है , चूंकि यह चारों ओर से मजबूत प्राकृतिक दीवारों से संरक्षित है केवल कुछ स्थानों पर उच्च दीवारों का निर्माण किया गया है । किले के तीन मुख्य प्रवेश द्वार हैं जो मेनका , हुमकारा और सिम्हाद्वार नाम से जाना जाता है । पहाड़ी के शीर्ष पर 5 वर्ग मीटर का एक समतल क्षेत्र है , जहां पांच तालाब हैं इनमें से तीन तालाब में पानी भरा है ।यहां प्रसिद्ध महिषासुर मर्दिनी मंदिर स्थित है । महिषासुर मर्दिनी की मूर्ति , 12 हाथों की मूर्ति , गर्भगृह में स्थापित होती है । मंदिर से 3 किनी दूर शंकर की गुफा स्थित है । यह गुफा जो एक सुरंग की तरह है , 25 फीट लंबा है । कोई एक ही गुफा के अंदर ही जा सकता है क्योंकि यह व्यास में बहुत कम है । नवरात्रि के दौरान यहाँ विशेष पूजा आयोजित की जाती है ।
रतनपुर- यह बिलासपुर जिले में स्थित है । बिलासपुर कोरबा सड़क मार्ग पर 25 कि.मी. की दूरी पर स्थित है । रतनपुर कभी पुरे छ.ग. की राजधानी हुआ करती थी । इस नगर को अलग - अलग समय में अलग - अलग नामों से जाना जाता था । सतयुग में मणिपुर , त्रेता युग में माणिकपुर द्वापरयुग में हिरापुर तथा कलयुग में रतनपुर कहा गया । कल्चुरि शासक रत्नदेव प्रथम द्वारा 1045 ई . में रतनपुर को अपनी राजधानी बनाई जो की कल्युरियों के साथ - साथ मराठा शासकों की भी राजधानी रही । कल्चुरि शासक रत्नदेव प्रथम ने 1050 ई . में महामाया मंदिर की स्थापना की । यहाँ कल्चुरि शासकों द्वारा समय - समय पर अनेक निर्माणकार्य करवाये गये । 1165 ई . में रत्नदेव तृतीय के प्रधानमंत्री गंगाधर द्वारा लखनीदेवी मंदिर का निर्माण कराया गया । तथा गजकिले के अंदर जगन्नाथ मंदिर तथा मराठा शासक बिम्बाजी भोंसले द्वारा रामटेकरी मंदिर का निर्माण कराया गया । 1787 में मराठा शासक बिम्बाजी भोंसले की मृत्यु पर उनकी पत्नी उमा जी बाई सती हो गई । इसका प्रमाण रतनपुर में स्थित सती चौरा से प्राप्त होता है ।
मल्हार- मल्हार बिलासपुर जिले के मस्तुरी के निकट एक गांव है । जिनका अपना एक पुरातात्विक एवं ऐतिहासिक महत्व है । इस स्थान में उत्खनन के दौरान महापाषाण कालीन युगीन सभ्यता के अनेक साक्ष्य प्राप्त हुए हैं । इस स्थान से बड़ी मात्र में मूर्तियाँ , शिलालेख , ताम्रपत्र तथा अनेक सिक्के प्राप्त हुए हैं । इस स्थान से कई अनेक मंदिरों के अवशेष प्राप्त हुए हैं जिनमें पातालेश्वर केदार मंदिर महत्वपूर्ण हैं । दूसरा महत्वपूर्ण मंदिर डिंडनेश्वरी देवी का मंदिर है जो काले ग्रेनाइड पत्थर की है ।
तालागांव- तालागांव मनियारी नदी के तट पर बिलासपुर जिले में स्थित है । शरभपुरी वंश शासकों द्वारा जेठानी मंदिर का निर्माण छठवी शताब्दि के उत्तरार्द्ध में हुआ था , तथा देवरानी मंदिर यहाँ पांचवी शताब्दि में निर्माण कराया गया था , जो कि देवरानी - जेठानी मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है । यहाँ खुदाई के दौरान कार्तिकेय की मूर्ति और भगवान विष्णु का मूर्ति प्राप्त हुई है । तालागांव वास्तुकला और शिल्प की दृष्टि से बेजोड़ कला का प्रतीक है । देवरानी मंदिर प्रांगढ़ में खनन के दौरान 1987 में रूद्र शिव का प्रतिमा प्राप्त हुई है ।
खरौद लक्ष्मणेश्वर मंदिर- खरौद को छ.ग. का ' काशी ' कहते हैं । यह स्थान जांजगीर - चांपा जिले के शिवरीनारायण से 5 कि.मी. की दूरी पर स्थित है । यह गांव पौराणिक , ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक विशेषताओं से परिपूर्ण है । इस मंदिर का निर्माण छठवी शताब्दि में पाण्ड्वंश के ईशानदेव ने करवाया था । जिसका जीर्णोद्धार कल्चूरि शासक रत्नदेव तृतीय के प्रधानमंत्री गंगाधर ने करवाया है । यह मूलतः एक शिव मंदिर है । अतः इसे लक्ष्मणेश्वर महादेव कहते हैं ।
पाली- यह कोरबा जिले के पाली नामक स्थान पर स्थित है । यह एक शैव मंदिर है । जिसका निर्माण 9 वीं शताब्दि में बाण वंशीय शासक विक्रमादित्य के द्वारा निर्माण करवाया गया था । जिसका जीर्णोद्धार कल्चूरि शासक जाजल्यदेव प्रथम द्वारा या गया था । पाली में ही पाण्डुवंशीय शासक महाशिवगुप्त बालार्जुन द्वारा प्रसस्त मंदिर का निर्माण करवाया गया था ।
भोरमदेव मंदिर- भोरमदेव मंदिर कवर्धा जिले से 16 कि.मी. की दूरी पर चौरा ग्राम में चारों ओर मैकल पर्वत से घिरा हुआ एक काफी सुन्दर पर्यटन स्थल है । इस मंदिर का निर्माण 1089 ईस्वी में फणीनागवंश के 6 वें शासक गोपालदेव द्वारा निर्माण करवाया गया है । यह मंदिर चंदेल शैली ( नागरशैली ) में निर्माण किया गया है । भोरमदेव को छ.ग. का खजुराहों भी कहा जाता है । इसी वंश के 16 वें राजा रामचन्द्र ने अपने विवाह के अवसर पर 1349 ई . में मड़वामहल का निर्माण करवाया । यह मंदिर अद्भूत कलाशैली से परिपूर्ण है । इस मंदिर में फणीनागवंश की पूरी वंशावली दर्शायी गई है । इसके आस - पास अन्य और दार्शनिक स्थल स्थित हैं ।
शिवरीनारायण- यह पर्यटन स्थल जांजगीर - चांपा जिले में महानदी , शिवनाथ नदी तथा जोंक नदी के संगम पर स्थित है । मान्यता के अनुसार भगवान राम यहाँ वनवास के दौरान आये थे तथा शबरी के हाथों उनके जुठे बेर खाये थे । शबरी प्रसंग के कारण इस स्थान का नाम शिवरीनारायण पड़ा ।
कबरा पहाड़- यह विश्वविख्यात पर्यटन स्थल रायगढ़ जिले से 16 कि.मी. की दूरी पर स्थित है । यह एक काफी सुन्दर पर्यटन स्थल है । जहाँ पर सारी चित्रकलाएँ लाल बलुआ पत्थर पर चित्रांकित की गई है । यहाँ घड़ियाल , हिंसक जीव - जन्तु एवं पशुओं के श्रृंखलाबद्ध चित्र एवं मानव के दुर्लभ चित्र दार्शनिक हैं । इस स्थान से मध्यपाषाणकाल के अनेक एवं प्रागैतिहासिक काल के साक्ष्य मिले हैं । |
बेलपान- नर्मदा नदी का उद्गम स्थल अमरकंटक में है । बेलपान को छ.ग. का छोटा अमरकंटक के नाम से जाना जाता है । बिलासपुर जिले के मनियारी नदी के तट पर स्थित इस गाँव में शीतलपुरी बाबा की समाधि है । ऐसा कहा जाता है कि शीतलपुरी बाबा ने यहां जीवित समाधि ली थी और उन्हीं के आह्वान पर इस नदी का जन्म हुआ । 16 वीं शताब्दी के केसरी नदी के प्रांगण में कई बेल के पेड़ हैं । भगवान शिव पर चढ़ने वाले इसी बेलपत्र के कारण इस गाँव का नाम बेलपान पड़ा । यहां विशाल कुण्ड , शिवमंदिर तथा सीताकुण्ड आदि धार्मिक स्थल है । यहां प्रतिवर्ष फरवरी माह में यहां मेला लगता है ।
बसनाझर- रायगढ़ से पश्चिम दिशा में 28 कि.मी. तथा सिंघनपुर शैलाश्रय से दक्षिण दिशा में 8 कि.मी. दूर ब्रम्हनीन पहाड़ी पर 2000 फूट की ऊंचाई पर बसनाझर शैलाश्रय है । इसमें आखेट दृश्य एवं सामूहिक नृत्य तथा जीव - जंतुओं के शैलचित्र है । जिन्हें ईसा से 10 हजार वर्ष पुराना माना गया है । इस तरह प्राचीन प्रस्तर युग ( पोलियोलिथिक ऐज ) तथा नवीन प्रस्तर युग ( नियोलिथक ऐज ) में अंकित है बसनाझर के शैलचित्र । बसनाझर के शैलचित्र काल की दृष्टि से सिंघनपुर शैलाश्रय के बाद के हैं । पुरातत्वविदों के अनुसार यहां 10 हजार ईसा पूर्व हिरण , हाथी , जंगली भैसें , घोड़े इत्यादि पशुओं के लगभग 400 आदिम शैलचित्र हैं ।
नगपुरा - नगपुरा शिवनाथ नदी के किनारे पर स्थित एक जैन तीर्थ स्थल है । यहां 1995 में पार्श्वनाथ की प्रतिमा स्थापित किया गया था । इस तीर्थस्थल का सबसे बड़ा आकर्षण एक 30 फीट ऊंचा द्वार है , जिस पर पार्शवनाथ की एक प्रतिमा लगी हुई है । यह प्रतिमा चार स्तंभ पर टिकी हुई है , जो कि आत्मिक प्रायश्चित के चार जरूरी तत्व यानी ज्ञान , आत्मविश्लेषण ,अच्छा आचरण और तपस्या को दर्शाता है ।
लुथरा शरीफ- बिलासपुर से सीपत बलौदा मार्ग पर ग्राम - लुथरा स्थित है । कहा जाता है हजरत शाह बाबा सैय्यद इंसान अली अलैह रहमतुल्ला का जन्म सन 1845 में एक मुस्लिम परिवार में हुआ था । इनके पिता का नाम सैय्यद मरदान अली था , वंशावली के अनुसार बाबा इंसान अली के दादा का नाम जौहर अली था तथा इनके परदादा सैय्यद हैदर अली साहब हुए । बाबा इंसान अली की माँ का नाम बेगमजान और उनके नाना के नाम ताहिर अली साहब था । बाबा इंसान अली के नाना ताहिर अली धार्मिक प्रवृत्ति के इंसान थे । वे धर्म के प्रति गहरी आस्था रखते थे । उन्हें जीवन में पैदल हज यात्रा करने का गौरव प्राप्त हुआ था । सैय्यद इंसान अली पर उनके नाना के विचारधारा का पड़ना स्वाभाविक था क्योंकि इनका ज्यादा समय ननिहाल में ही बिता था और यही बालक आगे चल के हजरत बाबा सैय्यद इंसान अली के नाम से लुतरा शरीफ में प्रसिद्ध हुए ।
डोंगरगढ़- डोंगरगढ़ छत्तीसगढ़ के राजनांदगाँव जिलान्तर्गत दक्षिण - पूर्वी मध्य रेलवे के हावड़ा - मुम्बई रेल मार्ग पर और रायपुर - नागपुर राष्ट्रीय राजमार्ग में महाराष्ट्र प्रांत से लगा सीमांत तहसील मुख्यालय है । ब्रिटिश शासन काल में यह एक जमींदारी थी । प्राचीन काल से बमलाई देवी यहाँ की अधिष्ठात्री हैं , जो आज बमलेश्वरी देवी के नाम से विख्यात है । किंवदंती है कि यहाँ पहाड़ी पर किसी समय एक दुर्ग था , जिसमें माधवानल कामकंदला नामक प्रसिद्ध उपाख्यान की नायिका कामकंदला ' का निवास स्थान था । इसी दुर्ग में कामकंदला की भेंट माधवानल से हुई थी । यह प्रेम कहानी छत्तीसगढ़ में सर्वत्र प्रचलित है । डोंगरगढ़ की पहाड़ी पर प्राचीन मूर्तियों के शेष मिलते हैं । इसकी मूर्तिकला पर गौड़ संस्कृति का पर्याप्त प्रभाव दिखाई देता है । यहाँ से प्राप्त मूर्तियाँ अधिकांशतः 15 वीं -16 वीं सदी ई . में निर्मित की गई थीं । स्टेशन के समीप की पहाड़ी पर बमलाई देवी ' का सिद्धपीठ है । पहाड़ी के पीछे तपसी काल ' नामक एक दुर्ग है , जिसके अंदर भगवान विष्णु का एक मंदिर अवस्थित है । कुछ लोगों के मत में बमलाई देवी , मैना जाति के आदि निवासियों की कुलदेवी हैं । धमतरी , रायपुर जिला में भी इस देवी का स्थान है । डोंगरगढ़ में बमलाईगढ़ नामक एक दुर्ग भी है , जो इसी देवी के नाम पर प्रसिद्ध है । वास्तव में , छत्तीसगढ़ के कुछ इलाकों के आदिवासियों की इस देवी का स्थानीय संस्कृति में प्रमुख स्थान है ।
रामझरना- रायगढ़ के भुपदेवपुर में स्थित रामझरना अपने लोक लुभावन दृश्यों से पर्यटकों को आकर्षित कर रहा है । मान्यता है कि यहां पर वनवास के समय प्रभु राम का पदार्पण हुआ था । वर्तमान में यह स्थल जिले में पिकनिक स्पॉट के साथ राज्य के अन्य जिलों व ओडिशा के सीमावर्ती क्षेत्र के लोगों के आकर्षण का केन्द्र बना है । शहर से करीब 20 किलोमीटर दूर स्थित खरसिया ब्लॉक का रामझरना ( भूपदेवपुर ), जिले के दर्शनीक स्थल के रूप में प्रसिद्ध है । जहां हर वर्ष जिले सहित आसपास के जांजगीर , बिलासपुर , अंबिकापुर , जशपुर , महासमुंद व ओडिशा के बरगढ़ , झारसुगड़ा , बलांगीर के हजारों लोग भ्रमण करने आते हैं । करीब डेढ़ किलोमीटर के दायरे में बसे रामझरना का आकर्षण मुख्यद्वार से लंबा रास्ता होते हुए घने जंगल के अंदर में प्राकृतिक रूप से बना जलकुंड है , जो अनवरत बह रहा है । पौराणिक मान्यता है कि रामचंद्र 14 वर्ष के वनवास के समय पत्नी सीता व भाई लक्ष्मण के साथ यहां आये थे , तब सीता माता को प्यास लगी । भगवान राम ने बाण से धरती भेदकर सीता माता की प्यास बुझाई तब से यहां जल की धारा अनवरत बह रही है । बताया जाता है कि यहां का पानी पीने से शरीर का आंतरिक व बाह्य रोग से लोगों को मुक्ति मिलती है । पूरे अंचल में इस प्राकृतिक जलधारा से निकले जल को पवित्र व सबसे शुद्ध माना जाता है । जल कुंड से निकलने वाला पानी आगे चलकर बड़े जलाशय में समाहित हो जाता है , जिससे प्रतिवर्ष सैकड़ों एकड़ खेतों की सिंचाई होती है ।
तुर्रीधाम- जिला मुख्यालय जांजगीर से 40 किलोमीटर दूर सक्ती विकासखंड का ग्राम तुर्रा पहाड़ के बीच से अनवरत् बह रही जलधारा की वजह से प्रदेश भर में काफी प्रसिद्ध हो चुका है । यहां महाशिवरात्रि के दौरान सात दिनों का मेला किसी सुरम्य स्थल से कम नहीं है । करवाल नाले के दोनों ओर बने मंदिर लोगों की श्रद्धा का केंद्र हैं । जहां छत्तीसगढ़ , मध्यप्रदेश , बिहार , झारखंड , उड़ीसा सहित देशभर के लोग आते हैं । यहां की प्राकृतिक छटा, शिव का मंदिर , जिसके अंदर दीवार से अनवरत् जलधारा कई वर्षों से बह रही है । इस पानी में स्नान करने पर मन को सुकून महसूस होता है । तुर्रागांव के बुजुर्ग बताते हैं कि गर्मियों में पहाड़ पानी आता ही है , इसके अलावा पहाड़ की चट्टान से निकल रही अनवरत जलधारा बारहों महीने इस नाले को भरा रखती है तथा निकलने वाली जलधारा और भी तेज हो जाती है । जो मंदिर के निचले हिस्से से होते हुए करवाल नाला में जाकर मिल जाती है , जबकि भगवान शिव का मंदिर पहाड़ से सैकड़ों फीट नीचे बना है । बाहर से यहां पहूँचने वाले लोग अब तक यह नहीं जान पाए हैं कि पहाड़ के भीतर आखिर किस तरह जल की धारा बह रही है । ग्रामीणों का मानना है कि उनके उपर भगवान शिव की कृपा है , जिसके कारण प्रकृति का यह अनूठा जल स्त्रोत उनके गांव में है , जहां हर मौसम में जलधारा बह रही है । एक अहम् बात यह भी है कि पहाड़ से बह रहा जल गंगाजल की तरह है जो वर्षों तक खराब नहीं होता । यहां के पानी का उपयोग खेतों में कीटनाशक के रूप में भी किया जाता है । क्षेत्र में प्रचलित किवदंति के अनुसार तुरीगांव का एक चरवाहा जानवर चराने गया था । इसी दौरान उसे भगवान शिव के दर्शन हुए । भोले भंडारी ने उसे वर मांगने को कहा तो चरवाहे ने गांव में पानी की किल्लत हमेशा के लिए दूर होने का वर मांगा । तब से तुरीगांव में चट्टान से पानी अनवरत बह रहा है और गांव में कई वर्षों से गर्मी के दौरान भी पानी की कमी नहीं होती है । बहरहाल यह रहस्य का विषय कई वर्षों से बरकरार है कि आखिर पथरीली चट्टानों के बीच से पानी कहां से आता है ।
दमाउदरहा- दमाउदरहा जांजगीर - चांपा जिले के सक्ती विकासखण्ड से 15 किमी . की दूरी पर हावड़ा - मुम्बई रेलमार्ग पर स्थित है । यह ऋषभ तीर्थस्थल के नाम से प्रसिद्ध ऐतिहासिक पर्यटन स्थल है । यहां से सातवाहनों का शिलालेख प्राप्त हुआ है । पौराणिक ग्रंथ रामायण एवं महाभारत में भी इस स्थल का उल्लेख है । पहाड़ों के बीच ' जल का गहरा कुण्ड ' स्थित है जो प्राकृतिक सुंदरता से परिपूर्ण है । इस स्थल को गुंजी के नाम से भी जाना जाता है ।
मड़वारानी मन्दिर- माँ मड़वारानी मंदिर , छत्तीसगढ़ राज्य के कोरबा जिले में स्थित प्रसिद्ध मंदिर है एवं यहाँ के मूल निवासियों के द्वारा माँ मड़वारानी की आराधना की जाती है यह उनके श्रद्धा एवं आस्था का प्रतीक है और यह माना जाता है की माँ मड़वारानी स्वयं प्रकट होकर आस - पास के गावों की रक्षा करती हैं । माँ मड़वारानी मंदिर , मड़वारानी पहाड़ की चोटी पर कलमी पेड़ के नीचे स्थित है । माँ मड़वारानी मंदिर घने पर्वत में फूलों एवं फलदार वृक्षों से अच्छादित है और आयुर्वेदिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं । पहाड़ में पशु पक्षियों जैसे भालू , बंदर आदि को विचरण करते देखा जा सकता है । गांव मे मड़वारानी की कहानी ऐतिहासिक है और ऐसा बुजुर्गों द्वारा आँखों देखी मानी जाती है ऐसा माना जाता है कि मड़वारानी अपने शादी के मंडप ( मड़वा ) को छोड़ कर आ गयी थी । इसी दौरान बरपाली - मड़वारानी रोड में उनके शरीर से हल्दी एक बड़े पत्थर पर गिरी और वह पत्थर पीला हो गया । माँ मड़वारानी के मंडप से आने के कारण गाँव और पर्वत को मड़वारानी के नाम से जाना जाने लगा । माँ मड़वारानी संस्कृत में ' मांडवी देवी के नाम से जानी जाती है । किवंदतियों के अनुसार कुछ ग्राम वासियों ने देखा कि कलमी वृक्ष एवं उसके पत्तियों में हर नवरात्रि को जवा उग जाता है और एक सर्प उसके आस पास विचरण करता है और आज भी कभी - कभी दिखाई पड़ता है । इन्हीं मान्यताओं के कारण भक्तजन आज भी बहुतायत में दर्शन के लिए आते हैं
चन्द्रपुर - रायगढ़ शहर से 28 किलोमीटर दूर स्थित चंद्रपुर मे माता चंद्रहासिनी का मंदिर है । सदियों से यहां यह मान्यता है कि माता चंद्राहासिनी के दर से कोई खाली नहीं जाता है । मंदिर के विषय में कथा है कि चन्द्रपुर के राजा चन्द्रहास मां चन्द्रहासिनी की स्थापना की थी । बताया जाता है कि त्रेता युग में रावण जब सीता का हरण करके ले जा रहा था तो एक चन्द्र के आकार का तलवार चन्द्रपुर में गिरा था । इसके बाद राजा ने मंदिर के ऊपर पहाड़ पर इस तलवार की स्थापना की । उस जमाने से लोगों में चन्द्रहासिनी के प्रति लोगों में अटूट आस्था है । इस मंदिर में नवरात्री के दौरान हजारों की संख्या में बली चढ़ाई जाती है । लोग अपनी मन्नत पूरी होने के बाद बली चढ़ाते हैं । बली इस मंदिर की परंपरा और प्रथा में शामिल है । हर साल नवरात्री के अवसर पर लगभग दस हजार बकरों की बली चढ़ाई जाती है । माता के दर पर निसंतान दंपत्ति सहित बेरोजगार और जरूरतमंदों की भीड़ होती है । चन्द्रहासिनी के मंदिर के करीब एक देशी गुडी है , जहां हर साल नवरात्रि के अवसर पर राजपरिवार द्वारा देवी स्थापना कर पोड़ गिराया ( भैंसा बली ) जाता है । पहले यह राजा चन्द्रहास द्वारा किया जाता था , लेकिन वर्तमान में राजा बलवंत सिंह करते हैं । यह भी लोगों में आस्था का केन्द्र है । नवरात्रि के छठवें राजपरिवार के लोग एक काला मटका लेकर बाजे - गाजे के साथ जीव लेने जाते हैं , वे नदी के बीच जब पहुंचते हैं तो एक मछली उस मटके में आ जाती है और उस मछली को विधि - विधान से मटके में लपेटकर देवी गुड़ी लाया जाता है । उसी दिन छठ को मां की प्रतिमा को स्थापित किया जाता है । इसके अलावा नवमी के दिन देवी गुड़ी में पोड़ ( भैंस ) गिरता है और इसी दिन उस मछली को भी पानी में छोड़ा जाता है । इसके अलावा दसमी को माता का विसर्जन किया जाता है । चंद्रहासिनी मंदिर के विषय में एक कहानी प्रचलित है । यहां शिवरीनारायण के एक व्यक्ति ने अपने बच्चे को नदी में फेंक दिया था , तब वह बच्चा पानी में डूबा नहीं । बताया जाता है कि वह बहते हुए एक टापू पर जा पहुंचा । उसी दिन रात में मां चन्द्रहासिनी ने एक नाविक को सपने में उस बच्चे के विषय में जानकारी दी । तब उस मांझी ने सुबह में जाकर उस बच्चे को लेकर आ गया । तब से उस टापू पर एक लाल रंग का परचम लहरा रहा है और लोगों में मां चन्द्रहासिनी के प्रति आस्था और बढ़ गई ।
घटारानी- छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से करीब 80 किलोमीटर दूर जतमई पहाड़ी पर माता जतमई मंदिर स्थित है , जिसे ' जतमई घटारानी मंदिर के नाम से भी जाना जाता है । माता जतमई को समर्पित इस अद्भुत मन्दिर की बहुत अधिक मान्यता है । अत्यंत आश्चर्यजनक बात यह कि जतमई पहाड़ी 200 मीटर क्षेत्र में फैली हुई है और 70 मीटर ऊँची है , और इसी पहाड़ी पर जतमई घटारानी का मंदिर ऊँचे जलप्रपात के किनारों पर स्थित है । यहाँ शिखर पर विशालकाय पत्थर एक - दूसरे के ऊपर इस प्रकार सटे हुए हैं , जैसे किसी शिल्पकार के द्वारा जमाये गये हों । घटारानी प्रपात तक पहुँचना आसान नहीं है , अतः पर्यटकों के लिए वहाँ तक पहुँचने के पर्याप्त साधन जुटाए गए हैं । मन्दिर अत्यंत साफ पानी और खूबसूरती से जलप्रपात के समीप, प्रकृति की गोद में , पटेवा के समीप ग्रेनाइट के बहुत - से छोटे शिखरों और एक बहुत ही विशाल शिखर में खुदा हुआ है । घटारानी के समीप ही एकमुखी तिरछा शिवलिंग स्थापित है , जिसे ' टानेश्वरनाथ महादेव कहा जाता है और जिसके दर्शन करने के लिए यहाँ भक्तगण लालायित रहते हैं । इस शिवलिंग के बारे में एक पौराणिक कथा प्रसिद्ध है -कहा जाता है कि फिंगेश्वर के मालगुजार इसे अपने साथ ले जाना चाहते थे , लेकिन वे जितनी खुदाई करते शिवलिंग और गहरा होता चला जाता , आखिरकार थक - हारकर उन्होंने वह शिवलिंग वहीं छोड़ दिया । तभी से यह शिवलिंग टेढ़ा है ।
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